Followers

Wednesday, 10 July 2019

मौन-निमंत्रण

मौन-निमन्त्रण / सुमित्रानंदन पंत

स्तब्ध ज्योत्सना में जब संसार 
चकित रहता शिशु सा नादान ,
विश्व के पलकों पर सुकुमार 
विचरते हैं जब स्वप्न अजान,
           न जाने नक्षत्रों से कौन 
           निमंत्रण देता मुझको मौन !
सघन मेघों का भीमाकाश 
गरजता है जब तमसाकार,
दीर्घ भरता समीर निःश्वास,
प्रखर झरती जब पावस-धार ;
            न जाने ,तपक तड़ित में कौन 
            मुझे इंगित करता तब मौन !
देख वसुधा का यौवन भार 
गूंज उठता है जब मधुमास,
विधुर उर के-से मृदु उद्गार 
कुसुम जब खुल पड़ते सोच्छ्वास,
               न जाने, सौरभ के मिस कौन 
               संदेशा मुझे भेजता मौन !
क्षुब्ध जल शिखरों को जब बात
सिंधु में मथकर फेनाकार ,
बुलबुलों का व्याकुल संसार 
बना,बिथुरा देती अज्ञात ,
               उठा तब लहरों से कर कौन 
               न जाने, मुझे बुलाता कौन !
स्वर्ण,सुख,श्री सौरभ में भोर 
विश्व को देती है जब बोर 
विहग कुल की कल-कंठ हिलोर 
मिला देती भू नभ के छोर ;
              न जाने, अलस पलक-दल कौन
              खोल देता तब मेरे मौन  !
तुमुल तम में जब एकाकार 
ऊँघता एक साथ संसार ,
भीरु झींगुर-कुल की झंकार 
कँपा देती निद्रा के तार 
              न जाने, खद्योतों से कौन 
              मुझे पथ दिखलाता तब मौन !
कनक छाया में जबकि सकल 
खोलती कलिका उर के द्वार 
सुरभि पीड़ित मधुपों के बाल 
तड़प, बन जाते हैं गुंजार;
             न जाने, ढुलक ओस में कौन 
             खींच लेता मेरे दृग मौन !
बिछा कार्यों का गुरुतर भार 
दिवस को दे सुवर्ण अवसान ,
शून्य शय्या में श्रमित अपार,
जुड़ाता जब मैं आकुल प्राण ;
            न जाने, मुझे स्वप्न में कौन 
            फिराता छाया-जग में मौन !
न जाने कौन अये द्युतिमान !
जान मुझको अबोध, अज्ञान,
सुझाते हों तुम पथ अजान 
फूँक देते छिद्रों में गान ;
            अहे सुख-दुःख के सहचर मौन !
            नहीं कह सकता तुम हो कौन !
रचनाकार: आदरणीय सुमित्रानंदन पन्त 

Monday, 8 July 2019

इस हुजूम में

चेहरा एक तेरा, एक मेरा भी है चेहरों के हुजूम में!
ढ़ोए जा रहा है, यही भीड़, तुझको और मुझको,
अन्तहीन सा दौड़ है, गुम है सब इस हुजूम में!

उदास से हैं चेहरे, उन पर बदहवासियों के हैं पहरे!
शायद, खुद का पता, खुद ही तलाशती है आँखें,
वजूद, कुछ तेरा और मेरा भी है इस हुजूम में!

कौन हैं हम? न जाने इस भीड़ में क्यूं मौन हैं हम!
इक प्रश्न है हर नजर में, हर प्रश्न में हम गौण हैं,
अनुत्तरित हैं, असंख्य ऐसे प्रश्न इस हुजूम में!

अपनत्व है इक दिखावा, साथ तो है इक छलावा!
जी ले कोई अपनी बला से, या कोई मरता मरे,
इन्सानियत गिर चुका है, इतना इस हुजूम में!

कौन दावा करे? झूठा दंभ कोई क्यूं खुद पर भरे!
कभी शह, कभी मात है, वक्त की ये विसात है,
खुद ही जिन्दगी, छल चुकी है इस हुजूम में!

चेहरा एक तेरा, एक मेरा भी है चेहरों के हुजूम में!
ढ़ोए जा रहा है, यही भीड़, तुझको और मुझको,
अन्तहीन सा दौड़ है, गुम है सब इस हुजूम में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा