इस दृष्टि-पथ से, तुम हुए थे जब ओझल...
धूमिल सी हो चली थी संध्या,
थम गई थी, पागल झंझा,
शिथिल हो, झरने लगे थे रज कण,
शांत हो चले थे चंचल बादल....
इस दृष्टि-पथ से, तुम हुए थे जब ओझल...
सिमट चुकी थी रश्मि किरणें,
हत प्रभ थे, चुप थे विहग,
दिशाएं, हठात कर उठी थी किलोल,
दुष्कर प्रहर, थी बड़ी बोझिल....
इस दृष्टि-पथ से, तुम हुए थे जब ओझल...
खामोश हुई थी रजनीगन्धा,
चुप-चुप रही रातरानी,
खुशबु चुप थी, पुष्प थे गंध-विहीन,
करते गुहार, फैलाए आँचल....
इस दृष्टि-पथ से, तुम हुए थे जब ओझल...
बना रहा, इक मैं आशावान,
क्षणिक था वो प्रयाण,
किंचित फिर विहान, होना था कल,
यूँ ही तुम, लौट आओगे चल...
इस दृष्टि-पथ से, तुम हुए थे जब ओझल...
-पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
धूमिल सी हो चली थी संध्या,
थम गई थी, पागल झंझा,
शिथिल हो, झरने लगे थे रज कण,
शांत हो चले थे चंचल बादल....
इस दृष्टि-पथ से, तुम हुए थे जब ओझल...
सिमट चुकी थी रश्मि किरणें,
हत प्रभ थे, चुप थे विहग,
दिशाएं, हठात कर उठी थी किलोल,
दुष्कर प्रहर, थी बड़ी बोझिल....
इस दृष्टि-पथ से, तुम हुए थे जब ओझल...
खामोश हुई थी रजनीगन्धा,
चुप-चुप रही रातरानी,
खुशबु चुप थी, पुष्प थे गंध-विहीन,
करते गुहार, फैलाए आँचल....
इस दृष्टि-पथ से, तुम हुए थे जब ओझल...
बना रहा, इक मैं आशावान,
क्षणिक था वो प्रयाण,
किंचित फिर विहान, होना था कल,
यूँ ही तुम, लौट आओगे चल...
इस दृष्टि-पथ से, तुम हुए थे जब ओझल...
-पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
बहुत सुन्दर रचना .धन्यवाद
ReplyDeleteहिन्दीकुंज,हिंदी वेबसाइट/लिटरेरी वेब पत्रिका
सादर आभार
Deleteबहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteसादर धन्यवाद विजय जी।
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