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Monday, 27 April 2020

रहस्य / सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय"

मेरे उर में क्या अन्तर्हित है, यदि यह जिज्ञासा हो,
दर्पण ले कर क्षण भर उस में मुख अपना, प्रिय! तुम लख लो!
यदि उस में प्रतिबिम्बित हो मुख सस्मित, सानुराग, अम्लान,
'प्रेम-स्निग्ध है मेरा उर भी', तत्क्षण तुम यह लेना जान!

यदि मुख पर सोती अवहेला या रोती हो विकल व्यथा;
दया-भाव से झुक जाना, प्रिय! समझ हृदय की करुण व्यथा!
मेरे उर में क्या अन्तर्हित है, यदि यह जिज्ञासा हो,
दर्पण ले कर क्षण भर उस में मुख अपना, प्रिय! तुम लख लो!
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सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय"
(7 मार्च,1911-4 अप्रैल,1987) -
1964 में "आँगन के पार द्वार" पर उन्हें साहित्य अकादमी का और 1978 में "कितनी नावों में कितनी बार" पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला ।
आप की प्रमुख कृतियां हैं; कविता संग्रह: भग्नदूत 1933, चिन्ता 1942, इत्यलम् 1946, हरी घास पर क्षण भर 1949, बावरा अहेरी 1954, इन्द्रधनु रौंदे हुये ये 1957, अरी ओ कस्र्णा प्रभामय 1959, आँगन के पार द्वार 1961, कितनी नावों में कितनी बार (1967), क्योंकि मैं उसे जानता हूँ (1970), सागर मुद्रा (1970), पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ (1974), महावृक्ष के नीचे (1977), नदी की बाँक पर छाया (1981), ऐसा कोई घर आपने देखा है (1986), प्रिज़न डेज़ एण्ड अदर पोयम्स (अंग्रेजी में,1946)। कहानियाँ: विपथगा 1937, परम्परा 1944, कोठरीकी बात 1945, शरणार्थी 1948, जयदोल 1951; चुनी हुई रचनाओं के संग्रह: पूर्वा (1965), सुनहरे शैवाल (1965), अज्ञेय काव्य स्तबक (1995), सन्नाटे का छन्द, मरुथल; संपादित संग्रह: तार सप्तक, दूसरा सप्तक, तीसरा सप्तक, पुष्करिणी (1953) । आपने उपन्यास, यात्रा वृतान्त, निबंध संग्रह, आलोचना, संस्मरण, डायरियां, विचार गद्य: और नाटक भी लिखे ।

Wednesday, 22 April 2020

मंगल आह्वान / रामधारी सिंह "दिनकर"

रामधारी सिंह 'दिनकर' ' (23 सितम्‍बर 1908- 24 अप्रैल 1974) हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबंधकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं।
- प्रस्तुत है आ. रामधारी सिंह "दिनकर" जी की कविता संकलन "रेणुका" से उद्धृत एक रचना....

मंगल आह्वान

भावों के आवेग प्रबल
मचा रहे उर में हलचल।

कहते, उर के बाँध तोड़
स्वर-स्त्रोत्तों में बह-बह अनजान,
तृण, तरु, लता, अनिल, जल-थल को 
छा लेंगे हम बनकर गान।

पर, हूँ विवश, गान से कैसे 
जग को हाय ! जगाऊँ मैं,
इस तमिस्त्र युग-बीच ज्योति की
कौन रागिनी गाऊँ मैं? 

बाट जोहता हूँ लाचार
आओ स्वरसम्राट ! उदार

पल भर को मेरे प्राणों में
ओ विराट्‌ गायक ! आओ, 
इस वंशी पर रसमय स्वर में
युग-युग के गायन गाओ।

वे गायन, जिनके न आज तक
गाकर सिरा सका जल-थल, 
जिनकी तान-तान पर आकुल 
सिहर-सिहर उठता उडु-दल। 

आज सरित का कल-कल, छल-छल, 
निर्झर का अविरल झर-झर,
पावस की बूँदों की रिम-झिम 
पीले पत्तों का मर्मर,

जलधि-साँस, पक्षी के कलरव,
अनिल-सनन, अलि का गुन-गुन
मेरी वंशी के छिद्रों में
भर दो ये मधु-स्वर चुन चुन।

दो आदेश, फूँक दूँ श्रृंगी,
उठें प्रभाती-राग महान,
तीनों काल ध्वनित हो स्वर में
जागें सुप्त भुवन के प्राण। 

गत विभूति, भावी की आशा, 
ले युगधर्म पुकार उठे,
सिंहों की घन-अंध गुहा में
जागृति की हुंकार उठे। 

जिनका लुटा सुहाग, हृदय में
उनके दारुण हूक उठे,
चीखूँ यों कि याद कर ऋतुपति 
की कोयल रो कूक उठे। 

प्रियदर्शन इतिहास कंठ में
आज ध्वनित हो काव्य बने, 
वर्तमान की चित्रपटी पर
भूतकाल सम्भाव्य बने।

जहाँ-जहाँ घन-तिमिर हृदय में
भर दो वहाँ विभा प्यारी,
दुर्बल प्राणों की नस-नस में
देव ! फूँक दो चिनगारी। 

ऐसा दो वरदान, कला को 
कुछ भी रहे अजेय नहीं,
रजकण से ले पारिजात तक
कोई रूप अगेय नहीं। 

प्रथम खिली जो मघुर ज्योति
कविता बन तमसा-कूलों में 
जो हँसती आ रही युगों से
नभ-दीपों, वनफूलों में;

सूर-सूर तुलसी-शशि जिसकी
विभा यहाँ फैलाते हैं,
जिसके बुझे कणों को पा कवि
अब खद्योत कहाते हैं; 

उसकी विभा प्रदीप्त करे
मेरे उर का कोना-कोना 
छू दे यदि लेखनी, धूल भी
चमक उठे बनकर सोना॥
...............................................
कविवर परिचय

जन्म: 23 सितम्बर, 1908, एक निम्न-मध्यवर्गीय कृषक-परिवार में (सिमरिया, तत्कालीन मुंगेर जिला, बिहार)। 

शिक्षा: 1923 में मिडिल की परीक्षा पास की और 1928 में मोकामा घाट के रेलवे हाई स्कूल से मैट्रिकुलेशन। 1932 में पटना कॉलेज से ग्रेजुएशन, इतिहास में ऑनर्स के साथ। 

आजीविका: 1933 में बरबीघा (मुंगेर) में नवस्थापित हाई स्कूल में प्रधानाध्यापक। 1934 से 1942 तक बिहार सरकार के अधीन सब-रजिस्ट्रार। 1943 से 1947 तक प्रान्तीय सरकार के युद्ध-प्रचार-विभाग में। 1947 में बिहार सरकार के जन-सम्पर्क विभाग में उपनिदेशक। 1950 से 1952 (मार्च) तक लंगट सिंह कॉलेज, मुजफ्फरपुर (बिहार) में हिन्दी विभागाध्यक्ष और प्रोफेसर। 1952 से 1964 तक सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देकर राज्यसभा के कांग्रेस द्वारा निर्वाचित सदस्य। 1964 में राज्यसभा की सदस्यता छोड़कर भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति। मई, 1965 से 1971 तक भारत सरकार के गृह-मंत्रालय में हिन्दी सलाहकार। 

साहित्यिक जीवन का आरम्भ: 1924 में पाक्षिक ‘छात्र सहोदर’ (जबलपुर) में प्रकाशित पहली कविता से। 

प्रमुख कृतियाँ: 

कविता: रेणुका, हुंकार, रसवन्ती, कुरुक्षेत्र, सामधेनी, बापू, धूप और धुआँ, रश्मिरथी, नील कुसुम, उर्वशी, परशुराम की प्रतीक्षा, कोयला और कवित्व तथा हारे को हरिनाम। 

गद्य: मिट्टी की ओर, अर्धनारीश्वर, संस्कृति के चार अध्याय, काव्य की भूमिका, पन्त, प्रसाद और मैथिलीशरण, शुद्ध कविता की खोज तथा संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ। 

सम्मान: 1959 में ‘संस्कृति के चार अध्याय’ पर साहित्य अकादेमी पुरस्कार और पद्मभूषण की उपाधि। 1962 में भागलपुर विश्वविद्यालय की तरफ से ‘डॉक्टर ऑफ लिटरेचर’ की मानद उपाधि। 1973 में ‘उर्वशी’ पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार। अनेक बार भारतीय और विदेशी सरकारों के निमन्त्रण पर विदेश-यात्रा। 

निधन: 24 अप्रैल, 1974।

शत्-शत् नमन

Friday, 21 February 2020

प्रेयसी /सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' (21.02.1896 से 15.10.1961)। वे  जयशंकर प्रसाद,  सुमित्रानंदन पंत  और  महादेवी वर्मा के साथ हिन्दी साहित्य में हिन्दी कविता के छायावाद युग के प्रमुख चार स्तंभों में से, एक माने जाते हैं। 

उनकी जन्मतिथि पर उन्ही की रचित एक कालजयी रचना....


प्रेयसी...

घेर अंग-अंग को
लहरी तरंग वह प्रथम तारुण्य की,
ज्योतिर्मयि-लता-सी हुई मैं तत्काल
घेर निज तरु-तन।
खिले नव पुष्प जग प्रथम सुगन्ध के,
प्रथम वसन्त में गुच्छ-गुच्छ।

दृगों को रँग गयी प्रथम प्रणय-रश्मि-
चूर्ण हो विच्छुरित
विश्व-ऐश्वर्य को स्फुरित करती रही
बहु रंग-भाव भर
शिशिर ज्यों पत्र पर कनक-प्रभात के,
किरण-सम्पात से।

दर्शन-समुत्सुक युवाकुल पतंग ज्यों
विचरते मञ्जु-मुख
गुञ्ज-मृदु अलि-पुञ्ज
मुखर उर मौन वा स्तुति-गीत में हरे।

प्रस्रवण झरते आनन्द के चतुर्दिक-
भरते अन्तर पुलकराशि से बार-बार
चक्राकार कलरव-तरंगों के मध्य में
उठी हुई उर्वशी-सी,
कम्पित प्रतनु-भार,
विस्तृत दिगन्त के पार प्रिय बद्ध-दृष्टि
निश्चल अरूप में।

हुआ रूप-दर्शन
जब कृतविद्य तुम मिले
विद्या को दृगों से,
मिला लावण्य ज्यों मूर्ति को मोहकर,-
शेफालिका को शुभ हीरक-सुमन-हार,-
श्रृंगार
शुचिदृष्टि मूक रस-सृष्टि को।

याद है, उषःकाल,-
प्रथम-किरण-कम्प प्राची के दृगों में,
प्रथम पुलक फुल्ल चुम्बित वसन्त की
मञ्जरित लता पर,
प्रथम विहग-बालिकाओं का मुखर स्वर
प्रणय-मिलन-गान,
प्रथम विकच कलि वृन्त पर नग्न-तनु
प्राथमिक पवन के स्पर्श से काँपती;
करती विहार
उपवन में मैं, छिन्न-हार
मुक्ता-सी निःसंग,
बहु रूप-रंग वे देखती, सोचती;
मिले तुम एकाएक;
देख मैं रुक गयी:-
चल पद हुए अचल,
आप ही अपल दृष्टि,
फैला समाष्टि में खिंच स्तब्ध मन हुआ।

दिये नहीं प्राण जो इच्छा से दूसरे को,
इच्छा से प्राण वे दूसरे के हो गये !
दूर थी,
खिंचकर समीप ज्यों मैं हुई।
अपनी ही दृष्टि में;
जो था समीप विश्व,
दूर दूरतर दिखा।

मिली ज्योति छबि से तुम्हारी
ज्योति-छबि मेरी,
नीलिमा ज्यों शून्य से;
बँधकर मैं रह गयी;
डूब गये प्राणों में
पल्लव-लता-भार
वन-पुष्प-तरु-हार
कूजन-मधुर चल विश्व के दृश्य सब,-
सुन्दर गगन के भी रूप दर्शन सकल-
सूर्य-हीरकधरा प्रकृति नीलाम्बरा,
सन्देशवाहक बलाहक विदेश के।
प्रणय के प्रलय में सीमा सब खो गयी !

बँधी हुई तुमसे ही
देखने लगी मैं फिर-
फिर प्रथम पृथ्वी को;
भाव बदला हुआ-
पहले ही घन-घटा वर्षण बनी हुई;
कैसा निरञ्जन यह अञ्जन आ लग गया !

देखती हुई सहज
हो गयी मैं जड़ीभूत,
जगा देहज्ञान,
फिर याद गेह की हुई;
लज्जित
उठे चरण दूसरी ओर को
विमुख अपने से हुई !

चली चुपचाप,
मूक सन्ताप हृदय में,
पृथुल प्रणय-भार।

देखते निमेशहीन नयनों से तुम मुझे
रखने को चिरकाल बाँधकर दृष्टि से
अपना ही नारी रूप, अपनाने के लिए,
मर्त्य में स्वर्गसुख पाने के अर्थ, प्रिय,
पीने को अमृत अंगों से झरता हुआ।

कैसी निरलस दृष्टि !
सजल शिशिर-धौत पुष्प ज्यों प्रात में
देखता है एकटक किरण-कुमारी को।–

पृथ्वी का प्यार, सर्वस्व उपहार देता
नभ की निरुपमा को,
पलकों पर रख नयन
करता प्रणयन, शब्द-
भावों में विश्रृंखल बहता हुआ भी स्थिर।

देकर न दिया ध्यान मैंने उस गीत पर
कुल मान-ग्रन्थि में बँधकर चली गयी;
जीते संस्कार वे बद्ध संसार के-
उनकी ही मैं हुई !

समझ नहीं सकी, हाय,
बँधा सत्य अञ्चल से
खुलकर कहाँ गिरा।

बीता कुछ काल,
देह-ज्वाला बढ़ने लगी,
नन्दन निकुञ्ज की रति को ज्यों मिला मरु,
उतरकर पर्वत से निर्झरी भूमि पर
पंकिल हुई, सलिल-देह कलुषित हुआ।

करुणा को अनिमेष दृष्टि मेरी खुली,
किन्तु अरुणार्क, प्रिय, झुलसाते ही रहे-
भर नहीं सके प्राण रूप-विन्दु-दान से।
तब तुम लघुपद-विहार
अनिल ज्यों बार-बार
वक्ष के सजे तार झंकृत करने लगे!

Wednesday, 19 February 2020

तेरी यादों में रोया हूँ....

एक ग़ज़ल नुमा रचना
तेरी यादों में रोया हूँ.... 


हँसा हूँ तेरी बातों पे ,तेरी यादों में रोया हूँ 
प्यार है बस तुझी से तो,प्यार के बीज बोया हूँ।। 

खटकता हूँ सदा तुझको, मुझे य़ह बात है मालूम , 
मगर सपने तेरे देखे ,तेरी यादों में खोया हूँ। 

मेरी आँखों के अश्रु भी, तुझे पिघला सके न क्यों 
तेरी नफ़रत की गठरी को, दिवस और रात ढोया हूँ।

कदर तुझको नहीं मेरी, तेरी खातिर सहा कितना, 
मिली रुस्वाइयाँ फिर भी, प्रीत - माला पिरोया हूँ ।

गए हो लौटकर आना, कभी दिल से भुलाना ना, 
नहीं मैं बेवफा दिलबर, वफ़ा में मैं भिगोया हूँ ।

सुधा सिंह 'व्याघ्र' 



Friday, 17 January 2020

लहर सागर का श्रृंगार नही / हरिवंश राय बच्चन

लहर सागर का श्रृंगार नहीं

लहर सागर का नहीं श्रृंगार,
उसकी विकलता है;
अनिल अम्बर का नहीं खिलवार
उसकी विकलता है;
विविध रूपों में हुआ साकार,
रंगो में सुरंजित,
मृत्तिका का यह नहीं संसार,
उसकी विकलता है।

गन्ध कलिका का नहीं उदगार,
उसकी विकलता है;
फूल मधुवन का नहीं गलहार,
उसकी विकलता है;
कोकिला का कौन सा व्यवहार,
ऋतुपति को न भाया?
कूक कोयल की नहीं मनुहार,
उसकी विकलता है।

गान गायक का नहीं व्यापार,
उसकी विकलता है;
राग वीणा की नहीं झंकार,
उसकी विकलता है;
भावनाओं का मधुर आधार
सांसो से विनिर्मित,
गीत कवि-उर का नहीं उपहार,
उसकी विकलता है।

रचयिता: हरिवंश राय बच्चन 
हरिवंश राय बच्चन (२७ नवम्बर १९०७ – १८ जनवरी २००३) 
पुन्यतिथि पर नमन

Monday, 6 January 2020

बसंती हवा / केदारनाथ अग्रवाल

हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ।

        सुनो बात मेरी -
        अनोखी हवा हूँ।
        बड़ी बावली हूँ,
        बड़ी मस्तमौला।
        नहीं कुछ फिकर है,
        बड़ी ही निडर हूँ।
        जिधर चाहती हूँ,
        उधर घूमती हूँ,
        मुसाफिर अजब हूँ।

न घर-बार मेरा,
न उद्देश्य मेरा,
न इच्छा किसी की,
न आशा किसी की,
न प्रेमी न दुश्मन,
जिधर चाहती हूँ
उधर घूमती हूँ।
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ!

        जहाँ से चली मैं
        जहाँ को गई मैं -
        शहर, गाँव, बस्ती,
        नदी, रेत, निर्जन,
        हरे खेत, पोखर,
        झुलाती चली मैं।
        झुमाती चली मैं!
        हवा हूँ, हवा मै
        बसंती हवा हूँ।

चढ़ी पेड़ महुआ,
थपाथप मचाया;
गिरी धम्म से फिर,
चढ़ी आम ऊपर,
उसे भी झकोरा,
किया कान में 'कू',
उतरकर भगी मैं,
हरे खेत पहुँची -
वहाँ, गेंहुँओं में
लहर खूब मारी।

        पहर दो पहर क्या,
        अनेकों पहर तक
        इसी में रही मैं!
        खड़ी देख अलसी
        लिए शीश कलसी,
        मुझे खूब सूझी -
        हिलाया-झुलाया
        गिरी पर न कलसी!
        इसी हार को पा,
        हिलाई न सरसों,
        झुलाई न सरसों,
        हवा हूँ, हवा मैं
        बसंती हवा हूँ!

मुझे देखते ही
अरहरी लजाई,
मनाया-बनाया,
न मानी, न मानी;
उसे भी न छोड़ा -
पथिक आ रहा था,
उसी पर ढकेला;
हँसी ज़ोर से मैं,
हँसी सब दिशाएँ,
हँसे लहलहाते
हरे खेत सारे,
हँसी चमचमाती
भरी धूप प्यारी;
बसंती हवा में
हँसी सृष्टि सारी!
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ!

रचयिता: केदारनाथ अग्रवाल 
- नमन है उनको...