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Thursday, 15 April 2021

उनको प्रणाम / नागार्जुन

जो नहीं हो सके पूर्ण–काम

मैं उनको करता हूँ प्रणाम ।


कुछ कंठित औ' कुछ लक्ष्य–भ्रष्ट

जिनके अभिमंत्रित तीर हुए;

रण की समाप्ति के पहले ही

जो वीर रिक्त तूणीर हुए !

उनको प्रणाम !


जो छोटी–सी नैया लेकर

उतरे करने को उदधि–पार;

मन की मन में ही रही¸ स्वयं

हो गए उसी में निराकार !

उनको प्रणाम !


जो उच्च शिखर की ओर बढ़े

रह–रह नव–नव उत्साह भरे;

पर कुछ ने ले ली हिम–समाधि

कुछ असफल ही नीचे उतरे !

उनको प्रणाम !


एकाकी और अकिंचन हो

जो भू–परिक्रमा को निकले;

हो गए पंगु, प्रति–पद जिनके

इतने अदृष्ट के दाव चले !

उनको प्रणाम !


कृत–कृत नहीं जो हो पाए;

प्रत्युत फाँसी पर गए झूल

कुछ ही दिन बीते हैं¸ फिर भी

यह दुनिया जिनको गई भूल !

उनको प्रणाम !


थी उम्र साधना, पर जिनका

जीवन नाटक दु:खांत हुआ;

या जन्म–काल में सिंह लग्न

पर कुसमय ही देहांत हुआ !

उनको प्रणाम !


दृढ़ व्रत औ' दुर्दम साहस के

जो उदाहरण थे मूर्ति–मंत ?

पर निरवधि बंदी जीवन ने

जिनकी धुन का कर दिया अंत !

उनको प्रणाम !


जिनकी सेवाएँ अतुलनीय

पर विज्ञापन से रहे दूर

प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके

कर दिए मनोरथ चूर–चूर !

उनको प्रणाम !

- रचनाकार: नागार्जुन 

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नागार्जुन (30 जून 1911- 5 नवम्बर 1998) हिन्दी और मैथिली के अप्रतिम लेखक और कवि थे। अनेक भाषाओं के ज्ञाता तथा प्रगतिशील विचारधारा के साहित्यकार नागार्जुन ने हिन्दी के अतिरिक्त मैथिली संस्कृत एवं बाङ्ला में मौलिक रचनाएँ भी कीं तथा संस्कृत, मैथिली एवं बाङ्ला से अनुवाद कार्य भी किया। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित नागार्जुन ने मैथिली में "यात्री" उपनाम से लिखा तथा यह उपनाम उनके मूल नाम "वैद्यनाथ मिश्र" के साथ मिलकर एकमेक हो गया।

नागार्जुन लगभग अड़सठ वर्ष (सन् 1929 से 1997) तक रचनाकर्म से जुड़े रहे। कविता, उपन्यास, कहानी, संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत, निबन्ध, बाल-साहित्य -- सभी विधाओं में उन्होंने कलम चलायी। मैथिली एवं संस्कृत के अतिरिक्त बाङ्ला से भी वे जुड़े रहे। बाङ्ला भाषा और साहित्य से नागार्जुन का लगाव शुरू से ही रहा। काशी में रहते हुए उन्होंने अपने छात्र जीवन में बाङ्ला साहित्य को मूल बाङ्ला में पढ़ना शुरू किया। मौलिक रुप से बाङ्ला लिखना फरवरी १९७८ ई० में शुरू किया और सितंबर १९७९ ई० तक लगभग ५० कविताएँ लिखी जा चुकी थीं। कुछ रचनाएँ बँगला की पत्र-पत्रिकाओं में भी छपीं। कुछ हिंदी की लघु पत्रिकाओं में लिप्यंतरण और अनुवाद सहित प्रकाशित हुईं। मौलिक रचना के अतिरिक्त उन्होंने संस्कृत, मैथिली और बाङ्ला से अनुवाद कार्य भी किया। कालिदास उनके सर्वाधिक प्रिय कवि थे और 'मेघदूत' प्रिय पुस्तक, मेघदूत का मुक्तछंद में अनुवाद उन्होंने १९५३ ई० में किया था। जयदेव के 'गीत गोविंद' का भावानुवाद वे १९४८ ई० में ही कर चुके थे।वस्तुतः १९४४ और १९५४ ई० के बीच नागार्जुन ने अनुवाद का काफी काम किया। बाङ्ला उपन्यासकार शरतचंद्र के कई उपन्यासों और कथाओं का हिंदी अनुवाद छपा भी। कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के उपन्यास 'पृथ्वीवल्लभ' का गुजराती से हिंदी में अनुवाद १९४५ ई० में किया था।१९६५ ई० में उन्होंने विद्यापति के सौ गीतों का भावानुवाद किया था। बाद में विद्यापति के और गीतों का भी उन्होंने अनुवाद किया।इसके अतिरिक्त उन्होंने विद्यापति की 'पुरुष-परीक्षा' (संस्कृत) की तेरह कहानियों का भी भावानुवाद किया था।

6 comments:

  1. अद्भुत रचना, सुंदर जीवन परिचय, बचपन में इनकी रचनाओ को पढ़ी हूँ,फकीर की तरह अपने जीवन को जीने वाले इस ज्ञानी महापुरुष को शत शत नमन, सादर प्रणाम, शानदार पोस्ट

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  2. इस कालजयी कविता को साझा करने के निमित्त आपको भी प्रणाम आदरणीय पुरुषोत्तम जी।

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  3. नगार्जुन की यह कविता अपूर्णता को नमन है, अर्थात पूर्णता की ओर हो रहे हर प्रयास को नमन है

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