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Sunday, 12 September 2021

आज थका हिय हारिल मेरा / अज्ञेय

इस सूखी दुनिया में प्रियतम मुझ को और कहाँ रस होगा?
शुभे! तुम्हारी स्मृति के सुख से प्लावित मेरा मानस होगा!

दृढ़ डैनों के मार थपेड़े अखिल व्योम को वश में करता,
तुझे देखने की आशा से अपने प्राणों में बल भरता,

ऊषा से ही उड़ता आया, पर न मिल सकी तेरी झाँकी
साँझ समय थक चला विकल मेरे प्राणों का हारिल-पाखी

तृषित, श्रांत, तम-भ्रांत और निर्मम झंझा-झोंकों से ताड़ित-
दरस प्यास है असह, वही पर किए हुए उस को अनुप्राणित!

गा उठते हैं, 'आओ आओ!' केकी प्रिय घन को पुकार कर
स्वागत की उत्कंठा में वे हो उठते उद्भ्रांत नृत्य पर!

चातक-तापस तरु पर बैठा स्वाति-बूँद में ध्यान रमाये,
स्वप्न तृप्ति का देखा करता 'पी! पी! पी!' की टेर लगाये;

हारिल को यह सह्य नहीं है- वह पौरुष का मदमाता है :
इस जड़ धरती को ठुकरा कर उषा-समय वह उड़ जाता है।

'बैठो, रहो, पुकारो-गाओ, मेरा वैसा धर्म नहीं है;
मैं हारिल हूँ, बैठे रहना मेरे कुल का कर्म नहीं है।

तुम प्रिय की अनुकंपा माँगो, मैं माँगूँ अपना समकक्षी
साथ-साथ उड़ सकने वाला एकमात्र वह कंचन-पक्षी!'

यों कहता उड़ जाता हारिल ले कर निज भुज-बल का संबल
किंतु अंत संध्या आती है- आखिर भुज-बल है कितना बल?

कोई गाता, किंतु सदा मिट्टी से बँधा-बँधा रहता है,
कोई नभ-चारी, पर पीड़ा भी चुप हो कर ही सहता है;

चातक हैं, केकी हैं, संध्या को निराश हो सो जाते हैं,
हारिल हैं- उड़ते-उड़ते ही अंत गगन में खो जाते हैं।

कोई प्यासा मर जाता है, कोई प्यासा जी लेता है
कोई परे मरण-जीवन से कड़ुवा प्रत्यय पी लेता है।

आज प्राण मेरे प्यासे हैं, आज थका हिय-हारिल मेरा
आज अकेले ही उस को इस अँधियारी संध्या ने घेरा।

मुझे उतरना नहीं भूमि पर तब इस सूने में खोऊँगा
धर्म नहीं है मेरे कुल का- थक कर भी मैं क्यों रोऊँगा?

पर प्रिय! अंत समय में क्या तुम इतना मुझे दिलासा दोगे-
जिस सूने में मैं लुट चला, कहीं उसी में तुम भी होगे?

इस सूखी दुनिया में प्रियतम मुझ को और कहाँ रस होगा?
शुभे! तुम्हारी स्मृति के सुख से प्लावित मेरा मानस होगा।

रचनाकार: सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन "अज्ञेय"

Monday, 12 July 2021

रूबरू वो

जैसे, ठहरा हुआ, इक आईना था मैं,
बेझिझक, हुए थे रूबरू वो!

थाम कर अपने कदम, रुक चला यूँ वक्त,
पहर बीते, उनको ही निहार कर,
लगा, बहते पलों में, समाया एक छल हो,
ज्यूँ, नदी में ठहरा हुआ जल हो,
यूँ हुए थे, रूबरू वो!

जैसे, ठहरा हुआ, इक आईना था मैं,
बेझिझक, हुए थे रूबरू वो!

शायद, भूले से, कोई लम्हा आ रुका हो,
या, वो वक्त, थोड़ा सा, थका हो,
देखकर, इक सुस्त बादल, आ छुपा हो,
बूँद कोई, तनिक प्यासा सा हो,
रुबरू, यूँ हुए थे वो!

जैसे, ठहरा हुआ, इक आईना था मैं,
बेझिझक, हुए थे रूबरू वो!

पवन झकोरों पर, कर लूँ, यकीन कैसे!
रुक जाए किस पल, जाने कैसे,
मुड़ जाएँ, बिखेर कर, कब मेरी जुल्फें,
बहा लिए जाए, दीवाना सा वो,
बेझिझक, रुबरू हो!

जैसे, ठहरा हुआ, इक आईना था मैं,
बेझिझक, हुए थे रूबरू वो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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- Dedicated to someone to whom I ADMIRE & I met today and collected Sweet Memories & Amazing Fragrance...
It's ME, to whom I met Today...

Friday, 14 May 2021

पलों के यूकेलिप्टस

 

नहीं, कुछ भी नहीं!
तुम, न हो तो, कहीं कुछ भी नहीं!

हाँ, बीत जाते हैं जो, साथ होते नहीं,
पर वो पल, बीत पाते हैं कहाँ!
सजर ही आते हैं, कहीं, मन की धरा पर,
पलों के, विशाल यूकेलिप्टस!
लपेटे, सूखे से छाले,
फटे पुराने!

नया, कुछ भी नहीं....

बीत जाते हैं युग, वक्त बीतता नहीं,
कुछ, वक्त के परे, रीतता नहीं!
अकेले ही भीगता, पलों का यूकेलिप्टस,
कहीं शून्य में, सर को उठाए!
लपेटे, भीगे से छाले,
फटे पुराने!

नया, कुछ भी नहीं....

हाँ, पुराने वो पल, पुरानी सी बातें,
गुजरे से कल, रुहानी वो रातें!
उभर ही आते हैं, कहीं, मन की धरा पर,
लह-लहाते, वो यूकेलिप्टस!
लपेटे, रूखे से छाले,
फटे पुराने!

और, कुछ भी नहीं!
तुम, न हो तो, कहीं कुछ भी नहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 24 April 2021

अमर स्पर्श / सुमित्रानंदन पंत

खिल उठा हृदय,
पा स्पर्श तुम्हारा अमृत अभय!

खुल गए साधना के बंधन,
संगीत बना, उर का रोदन,
अब प्रीति द्रवित प्राणों का पण,
सीमाएँ अमिट हुईं सब लय।

 क्यों रहे न जीवन में सुख दुख, 
क्यों जन्म मृत्यु से चित्त विमुख?
तुम रहो दृगों के जो सम्मुख, 
प्रिय हो मुझको भ्रम भय संशय!

तन में आएँ शैशव यौवन, 
मन में हों विरह मिलन के व्रण,
युग स्थितियों से प्रेरित जीवन, 
उर रहे प्रीति में चिर तन्मय!

जो नित्य अनित्य जगत का क्रम, 
वह रहे, न कुछ बदले, हो कम,
हो प्रगति ह्रास का भी विभ्रम,
जग से परिचय, तुमसे परिणय!

तुम सुंदर से बन अति सुंदर, 
आओ अंतर में अंतर तर,
तुम विजयी जो, प्रिय हो मुझ पर 
 वरदान, पराजय हो निश्चय!

रचयिता -सुमित्रानंदन पंत 
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सुमित्रानंदन पंत (२० मई १९०० - २८ दिसम्बर १९७७हिंदी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। इस युग को जयशंकर प्रसादमहादेवी वर्मासूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' और रामकुमार वर्मा जैसे कवियों का युग कहा जाता है। उनका जन्म कौसानी बागेश्वर में हुआ था। झरना, बर्फ, पुष्प, लता, भ्रमर-गुंजन, उषा-किरण, शीतल पवन, तारों की चुनरी ओढ़े गगन से उतरती संध्या ये सब तो सहज रूप से काव्य का उपादान बने। निसर्ग के उपादानों का प्रतीक व बिम्ब के रूप में प्रयोग उनके काव्य की विशेषता रही। 

१९०७ से १९१८ के काल को स्वयं उन्होंने अपने कवि-जीवन का प्रथम चरण माना है। इस काल की कविताएँ वाणी में संकलित हैं। सन् १९२२ में उच्छ्वास और १९२६ में पल्लव का प्रकाशन हुआ। सुमित्रानंदन पंत की कुछ अन्य काव्य कृतियाँ हैं - ग्रन्थिगुंजनग्राम्यायुगांतस्वर्णकिरणस्वर्णधूलिकला और बूढ़ा चाँदलोकायतनचिदंबरासत्यकाम आदि। उनके जीवनकाल में उनकी २८ पुस्तकें प्रकाशित हुईं, जिनमें कविताएं, पद्य-नाटक और निबंध शामिल हैं। पंत अपने विस्तृत वाङमय में एक विचारक, दार्शनिक और मानवतावादी के रूप में सामने आते हैं किंतु उनकी सबसे कलात्मक कविताएं 'पल्लव' में संगृहीत हैं, जो १९१८ से १९२५ तक लिखी गई ३२ कविताओं का संग्रह है। इसी संग्रह में उनकी प्रसिद्ध कविता 'परिवर्तन' सम्मिलित है। 'तारापथ' उनकी प्रतिनिधि कविताओं का संकलन है।उन्होंने ज्योत्स्ना नामक एक रूपक की रचना भी की है। उन्होंने मधुज्वाल नाम से उमर खय्याम की रुबाइयों के हिंदी अनुवाद का संग्रह निकाला और डाॅ.हरिवंश राय बच्चन के साथ संयुक्त रूप से खादी के फूल नामक कविता संग्रह प्रकाशित करवाया। 
चिदम्बरा पर इन्हे 1972 मे ज्ञानपीठ पुरस्कार से, काला और बूढ़ा चांद पर साहित्त्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया ।

Tuesday, 20 April 2021

हक है तुम्हें

क्यूँ कोई झाँके, किसी के सूनेपन तक!
बेवजह दे, कोई क्यूँ दस्तक!

महज, मिटाने को, अपनी उत्सुकता,
जगाने को, मेरी सोई सी उत्कंठा,
देने को, महज, एक दस्तक,
तुम ही आए होगे, मेरे दर तक!

महज झांकने, सूनेपन तक....

वही पहचानी सी, आहट,
हल्की सी, पवन की सुग-बुगाहट,
सूखे पत्तों की, सर-सराहट,
काफी थे, कहने को!
तुम जो कहते,
वो, कह आए थे, चुपके से मुझको,
मन की बातें, इस मन तक!

देने को, महज एक दस्तक.....

अन्जान थे, हमेशा तुम,
सोया ही कब, उत्सुक ये मेरा मन,
हर पल, धारे इक उत्कंठा,
कहने भर, चुप जरा,
पर ओ बेखबर,
तीर पर, उठती ये पल-पल लहर,
सिमटती है, मेरे दर तक!

गूंजती है, दरो-दीवार तक......

हक है तुम्हें, तुम मिटाओ उत्सुकता,
न जगाओ मगर, यूँ मेरी उत्कंठा,
यूँ न दो, महज एक दस्तक,
ठहर जाओ, जरा मेरे दर तक!

या यूँ न झाँको, किसी के सूनेपन तक!
बेवजह दो न तुम यूँ दस्तक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 15 April 2021

उनको प्रणाम / नागार्जुन

जो नहीं हो सके पूर्ण–काम

मैं उनको करता हूँ प्रणाम ।


कुछ कंठित औ' कुछ लक्ष्य–भ्रष्ट

जिनके अभिमंत्रित तीर हुए;

रण की समाप्ति के पहले ही

जो वीर रिक्त तूणीर हुए !

उनको प्रणाम !


जो छोटी–सी नैया लेकर

उतरे करने को उदधि–पार;

मन की मन में ही रही¸ स्वयं

हो गए उसी में निराकार !

उनको प्रणाम !


जो उच्च शिखर की ओर बढ़े

रह–रह नव–नव उत्साह भरे;

पर कुछ ने ले ली हिम–समाधि

कुछ असफल ही नीचे उतरे !

उनको प्रणाम !


एकाकी और अकिंचन हो

जो भू–परिक्रमा को निकले;

हो गए पंगु, प्रति–पद जिनके

इतने अदृष्ट के दाव चले !

उनको प्रणाम !


कृत–कृत नहीं जो हो पाए;

प्रत्युत फाँसी पर गए झूल

कुछ ही दिन बीते हैं¸ फिर भी

यह दुनिया जिनको गई भूल !

उनको प्रणाम !


थी उम्र साधना, पर जिनका

जीवन नाटक दु:खांत हुआ;

या जन्म–काल में सिंह लग्न

पर कुसमय ही देहांत हुआ !

उनको प्रणाम !


दृढ़ व्रत औ' दुर्दम साहस के

जो उदाहरण थे मूर्ति–मंत ?

पर निरवधि बंदी जीवन ने

जिनकी धुन का कर दिया अंत !

उनको प्रणाम !


जिनकी सेवाएँ अतुलनीय

पर विज्ञापन से रहे दूर

प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके

कर दिए मनोरथ चूर–चूर !

उनको प्रणाम !

- रचनाकार: नागार्जुन 

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नागार्जुन (30 जून 1911- 5 नवम्बर 1998) हिन्दी और मैथिली के अप्रतिम लेखक और कवि थे। अनेक भाषाओं के ज्ञाता तथा प्रगतिशील विचारधारा के साहित्यकार नागार्जुन ने हिन्दी के अतिरिक्त मैथिली संस्कृत एवं बाङ्ला में मौलिक रचनाएँ भी कीं तथा संस्कृत, मैथिली एवं बाङ्ला से अनुवाद कार्य भी किया। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित नागार्जुन ने मैथिली में "यात्री" उपनाम से लिखा तथा यह उपनाम उनके मूल नाम "वैद्यनाथ मिश्र" के साथ मिलकर एकमेक हो गया।

नागार्जुन लगभग अड़सठ वर्ष (सन् 1929 से 1997) तक रचनाकर्म से जुड़े रहे। कविता, उपन्यास, कहानी, संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत, निबन्ध, बाल-साहित्य -- सभी विधाओं में उन्होंने कलम चलायी। मैथिली एवं संस्कृत के अतिरिक्त बाङ्ला से भी वे जुड़े रहे। बाङ्ला भाषा और साहित्य से नागार्जुन का लगाव शुरू से ही रहा। काशी में रहते हुए उन्होंने अपने छात्र जीवन में बाङ्ला साहित्य को मूल बाङ्ला में पढ़ना शुरू किया। मौलिक रुप से बाङ्ला लिखना फरवरी १९७८ ई० में शुरू किया और सितंबर १९७९ ई० तक लगभग ५० कविताएँ लिखी जा चुकी थीं। कुछ रचनाएँ बँगला की पत्र-पत्रिकाओं में भी छपीं। कुछ हिंदी की लघु पत्रिकाओं में लिप्यंतरण और अनुवाद सहित प्रकाशित हुईं। मौलिक रचना के अतिरिक्त उन्होंने संस्कृत, मैथिली और बाङ्ला से अनुवाद कार्य भी किया। कालिदास उनके सर्वाधिक प्रिय कवि थे और 'मेघदूत' प्रिय पुस्तक, मेघदूत का मुक्तछंद में अनुवाद उन्होंने १९५३ ई० में किया था। जयदेव के 'गीत गोविंद' का भावानुवाद वे १९४८ ई० में ही कर चुके थे।वस्तुतः १९४४ और १९५४ ई० के बीच नागार्जुन ने अनुवाद का काफी काम किया। बाङ्ला उपन्यासकार शरतचंद्र के कई उपन्यासों और कथाओं का हिंदी अनुवाद छपा भी। कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के उपन्यास 'पृथ्वीवल्लभ' का गुजराती से हिंदी में अनुवाद १९४५ ई० में किया था।१९६५ ई० में उन्होंने विद्यापति के सौ गीतों का भावानुवाद किया था। बाद में विद्यापति के और गीतों का भी उन्होंने अनुवाद किया।इसके अतिरिक्त उन्होंने विद्यापति की 'पुरुष-परीक्षा' (संस्कृत) की तेरह कहानियों का भी भावानुवाद किया था।

Sunday, 21 March 2021

उपालम्भ / महादेवी वर्मा

दिया क्यों जीवन का वरदान?

इसमें है स्मृतियों की कम्पन;
सुप्त व्यथाओं का उन्मीलन;
स्वप्नलोक की परियां इसमें
भूल गईं मुस्कान!

इसमें है झंझा का शैशव;
अनुरंजित कलियों का वैभव;
मलयपवन इसमें भर जाता
मृदु लहरों के गान!

इन्द्रधनुष सा घन-अंचल में;
तुहिनबिन्दु सा किसलय दल में;
करता है पल पल में देखो
मिटने का अभिमान!

सिकता में अंकित रेखा सा;
वात-विकम्पित दीपशिखा था,
काल-कपोलों पर आँसू सा
ढुल जाता हो म्लान!

रचयिता: महादेवी वर्मा 

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महादेवी वर्मा (२६ मार्च १९०७ — ११ सितंबर १९८७) 

हिन्दी की सर्वाधिक प्रतिभावान कवयित्रियों में से थीं। वे हिन्दी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों[] में से एक मानी जाती हैं।[ 

आधुनिक हिन्दी की सबसे सशक्त कवयित्रियों में से एक होने के कारण उन्हें आधुनिक मीरा के नाम से भी जाना जाता है।[

कवि निराला ने उन्हें “हिन्दी के विशाल मन्दिर की सरस्वती” भी कहा है।