पुनर्सृजित होते हो, कल्पनाओं में तुम ही...
मूर्त रूप हो कोई, या हो महज कल्पना,
या हो तुम, मेरी ही कोई, सुसुप्त सी चेतना,
हर घड़ी, हर शब्द, तेरी ही विवेचना!
या हो तुम, मेरी ही कोई, सुसुप्त सी चेतना,
हर घड़ी, हर शब्द, तेरी ही विवेचना!
पुनर्सृजित हो जाते हो, रचनाओं में तुम ही...
यथार्थ संवेदना हो, या सिर्फ संकल्पना,
अनुभूति हो कोई, या हो महज अवधारणा,
सदियों जिसकी, की है मैंने विवेचना!
अनुभूति हो कोई, या हो महज अवधारणा,
सदियों जिसकी, की है मैंने विवेचना!
पुनर्सृजित होते हो, संवेदनाओं में तुम ही...
अमूर्त विचार, जो झकझोरती है चेतना,
कोई अन्तर्वेदना, जो तलाशती हैं संभावना,
रूप-सौन्दर्य, ना हो जिसकी विवेचना!
कोई अन्तर्वेदना, जो तलाशती हैं संभावना,
रूप-सौन्दर्य, ना हो जिसकी विवेचना!
पुनर्सृजित होते हो, विवेचनाओं में तुम ही...
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अवधारणा: चेतना का वो मूल तत्व, जो, वस्तु को उसके अर्थ तथा अर्थ को वस्तु के बिम्ब के साथ जोड़ती है और चेतना को, संवेदनात्मक बिम्बों से अलग, इक स्वतंत्र रूप से पहचानने की संभावना पैदा करती है।
अमूर्त विचार, जो झकझोरती है चेतना,
ReplyDeleteकोई अन्तर्वेदना, जो तलाशती हैं संभावना,
रूप-सौन्दर्य, ना हो जिसकी विवेचना!...बहुत सुन्दर सृजन आदरणीय
सादर
सादर आभार ।
Deleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय अनुराधा जी।
Deleteबहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय उर्मिला जी। स्वागत है आपका इस पटल पर।
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