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Monday, 21 January 2019

नीड़-इक कल्पना

आँचल तले इक नीड़,
बना लेता ये खग, किसी कल्पना से भी सुन्दर!

हो कौन? अंजाना हूँ अब तक तुमसे,
लिपटा है मन, धुंध मे बस उस आँचल से,
लहराता हूूँ मैं, नभ में संग आँचल के,
छाँव वही प्यारा सा, गहराया अब इस मन पे।

प्रीत की डोर, बँँधी आँचल की कोर,
मन-विह्ववल, चित-चंचल, चितवन-चितचोर,
आँचल लहराता, जिया उठता हिलकोर,
उस ओर चला मन, आँचल उड़ता जिस ओर।

रंग-बिरंगे, सतरंगे, आँचल के कोर,
अति मन-भावन, उस आँचल के डोर-डोर,
छाँव घनेरी उन पर, जुल्फों के हर ओर,
बांध गया मन, आँचल से करता गठ-जोड़।

खग सा ये मन, नभ सा वो आँचल,
नभ पर मंडराता हो, जैसे कोई हंस युगल,
बूूँदें रिमझिम लाई, कल्पना के बाादल,
काश! मेेेेरा हो जाता, सुनहरा वो आँचल!

आँचल तले इक नीड़,
बना लेता ये खग, किसी कल्पना से भी सुन्दर!

2 comments:

  1. प्रीत की डोर, बँँधी आँचल की कोर,
    मन-विह्ववल, चित-चंचल, चितवन-चितचोर,
    आँचल लहराता, जिया उठता हिलकोर,
    उस ओर चला मन, आँचल उड़ता जिस ओर।...बहुत सुन्दर आदरणीय
    सादर

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  2. हृदयतल से आभार आदरणीय अनीता जी।

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