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Saturday, 26 October 2019

जलाओ दिये - गोपाल दास नीरज

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए

नई ज्योति के धर नये पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन-स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण-द्वार जगमग,
उषा जा न पाए, निशा आ ना पाए।

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए

सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यों ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए।

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ़ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आएँ नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे हृदय में उजेरा,
कटेगे तभी यह अँधेरे घिरे अब
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए।

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए

- नीरज

Wednesday, 2 October 2019

निस्पंद मन भ्रमर

संभव है डूब जाएँ, सृष्टि की ये कल्पनाएँ!

व्यथा के अनुक्षण, लाख बाहों में कसे,
विरह के कालाक्रमण, नाग बन कर डसे,
हर क्षण संताप दे, हर क्षण तुझ पर हँसे,
भटकने न देना, तुम मन की दिशाएँ!

संभव है डूब जाएँ, सृष्टि की ये कल्पनाएँ!

तिरने न देना, इक बूँद भी नैनों से जल,
या प्रलय हो, या हो हृदय दु:ख से विकल,
दुविधाओं के मध्य, या नैन तेरे हो सजल,
भीगोने ना देना, इन्हें मन की ऋचाएँ!

संभव है डूब जाएँ, सृष्टि की ये कल्पनाएँ!

गर ये नैन निर्झर, अनवरत बहती रही,
गर पिघलती रही, यूं ही सदा ये हिमगिरी,
गलकर हिमशिखर, स्खलित होती रही,
कौन वाचेगा यहाँ, वेदों की ऋचाएँ!

संभव है डूब जाएँ, सृष्टि की ये कल्पनाएँ!

ध्यान रखना, ऐ पंखुडी की भित्तियाँ,
निस्पंद मन भ्रमर, अभी जीवित है यहाँ,
ये काल-चक्र, डूबोने आएंगी पीढियाँ,
साँसें साधकर, वाचना तुम ॠचाएँ!

संभव है डूब जाएँ, सृष्टि की ये कल्पनाएँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday, 10 September 2019

महादेवी वर्मा: शेष कितनी रात है?

महादेवी वर्मा (२६ मार्च १९०७ — ११ सितंबर १९८७) हिन्दी की सर्वाधिक प्रतिभावान कवयित्रियों में से हैं।

वे हिन्दी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक मानी जाती हैं। आधुनिक हिन्दी की सबसे सशक्त कवयित्रियों में से एक होने के कारण उन्हें आधुनिक मीरा के नाम से भी जाना जाता है।कवि निराला ने उन्हें “हिन्दी के विशाल मन्दिर की सरस्वती” भी कहा है।

आज उनकी पुण्यतिथि पर उन्हीं की एक रचना उद्धृत है:

पूछता क्यों शेष कितनी रात?
छू नखों की क्रांति चिर संकेत पर जिनके जला तू
स्निग्ध सुधि जिनकी लिये कज्जल-दिशा में हँस चला तू
परिधि बन घेरे तुझे, वे उँगलियाँ अवदात!

झर गये ख्रद्योत सारे,
तिमिर-वात्याचक्र में सब पिस गये अनमोल तारे;
बुझ गई पवि के हृदय में काँपकर विद्युत-शिखा रे!
साथ तेरा चाहती एकाकिनी बरसात!

व्यंग्यमय है क्षितिज-घेरा
प्रश्नमय हर क्षण निठुर पूछता सा परिचय बसेरा;
आज उत्तर हो सभी का ज्वालवाही श्वास तेरा!
छीजता है इधर तू, उस ओर बढता प्रात!

प्रणय लौ की आरती ले
धूम लेखा स्वर्ण-अक्षत नील-कुमकुम वारती ले
मूक प्राणों में व्यथा की स्नेह-उज्जवल भारती ले
मिल, अरे बढ़ रहे यदि प्रलय झंझावात।

कौन भय की बात।
पूछता क्यों कितनी रात?

शत्-शत् नमन....

Friday, 2 August 2019

नर हो न निराश


3 अगस्त की तारीख हिंदी साहित्य के लिए बेहद विशेष है। सन 1886 में इसी दिन, राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त का जन्म हुआ  था।  उनकी कविताओं नें देशवासियों और नौजवानों में प्रेरणा और जोश का संचार कर दिया था। उनकी जयंती पर, उन्ही की ये कविता, जो हमें ऊर्जा और सकारात्मकता से भर देती है।

नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रह कर कुछ नाम करो!

यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो, न निराश करो मन को।

संभलो कि सुयोग न जाय चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलंबन को
नर हो, न निराश करो मन को।

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहां
फिर जा सकता वह सत्त्व कहां
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को।

निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
मरणोंत्‍तर गुंजित गान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
कुछ हो न तज़ो निज साधन को
नर हो, न निराश करो मन को।

प्रभु ने तुमको कर दान किए
सब वांछित वस्तु विधान किए
तुम प्राप्‍त करो उनको न अहो
फिर है यह किसका दोष कहो
समझो न अलभ्य किसी धन को
नर हो, न निराश करो मन को।

किस गौरव के तुम योग्य नहीं
कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं
जान हो तुम भी जगदीश्वर के
सब है जिसके अपने घर के
फिर दुर्लभ क्या उसके जन को
नर हो, न निराश करो मन को।

करके विधि वाद न खेद करो
निज लक्ष्य निरन्तर भेद करो
बनता बस उद्‌यम ही विधि है
मिलती जिससे सुख की निधि है
समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो…

-राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त

Wednesday, 10 July 2019

मौन-निमंत्रण

मौन-निमन्त्रण / सुमित्रानंदन पंत

स्तब्ध ज्योत्सना में जब संसार 
चकित रहता शिशु सा नादान ,
विश्व के पलकों पर सुकुमार 
विचरते हैं जब स्वप्न अजान,
           न जाने नक्षत्रों से कौन 
           निमंत्रण देता मुझको मौन !
सघन मेघों का भीमाकाश 
गरजता है जब तमसाकार,
दीर्घ भरता समीर निःश्वास,
प्रखर झरती जब पावस-धार ;
            न जाने ,तपक तड़ित में कौन 
            मुझे इंगित करता तब मौन !
देख वसुधा का यौवन भार 
गूंज उठता है जब मधुमास,
विधुर उर के-से मृदु उद्गार 
कुसुम जब खुल पड़ते सोच्छ्वास,
               न जाने, सौरभ के मिस कौन 
               संदेशा मुझे भेजता मौन !
क्षुब्ध जल शिखरों को जब बात
सिंधु में मथकर फेनाकार ,
बुलबुलों का व्याकुल संसार 
बना,बिथुरा देती अज्ञात ,
               उठा तब लहरों से कर कौन 
               न जाने, मुझे बुलाता कौन !
स्वर्ण,सुख,श्री सौरभ में भोर 
विश्व को देती है जब बोर 
विहग कुल की कल-कंठ हिलोर 
मिला देती भू नभ के छोर ;
              न जाने, अलस पलक-दल कौन
              खोल देता तब मेरे मौन  !
तुमुल तम में जब एकाकार 
ऊँघता एक साथ संसार ,
भीरु झींगुर-कुल की झंकार 
कँपा देती निद्रा के तार 
              न जाने, खद्योतों से कौन 
              मुझे पथ दिखलाता तब मौन !
कनक छाया में जबकि सकल 
खोलती कलिका उर के द्वार 
सुरभि पीड़ित मधुपों के बाल 
तड़प, बन जाते हैं गुंजार;
             न जाने, ढुलक ओस में कौन 
             खींच लेता मेरे दृग मौन !
बिछा कार्यों का गुरुतर भार 
दिवस को दे सुवर्ण अवसान ,
शून्य शय्या में श्रमित अपार,
जुड़ाता जब मैं आकुल प्राण ;
            न जाने, मुझे स्वप्न में कौन 
            फिराता छाया-जग में मौन !
न जाने कौन अये द्युतिमान !
जान मुझको अबोध, अज्ञान,
सुझाते हों तुम पथ अजान 
फूँक देते छिद्रों में गान ;
            अहे सुख-दुःख के सहचर मौन !
            नहीं कह सकता तुम हो कौन !
रचनाकार: आदरणीय सुमित्रानंदन पन्त 

Monday, 8 July 2019

इस हुजूम में

चेहरा एक तेरा, एक मेरा भी है चेहरों के हुजूम में!
ढ़ोए जा रहा है, यही भीड़, तुझको और मुझको,
अन्तहीन सा दौड़ है, गुम है सब इस हुजूम में!

उदास से हैं चेहरे, उन पर बदहवासियों के हैं पहरे!
शायद, खुद का पता, खुद ही तलाशती है आँखें,
वजूद, कुछ तेरा और मेरा भी है इस हुजूम में!

कौन हैं हम? न जाने इस भीड़ में क्यूं मौन हैं हम!
इक प्रश्न है हर नजर में, हर प्रश्न में हम गौण हैं,
अनुत्तरित हैं, असंख्य ऐसे प्रश्न इस हुजूम में!

अपनत्व है इक दिखावा, साथ तो है इक छलावा!
जी ले कोई अपनी बला से, या कोई मरता मरे,
इन्सानियत गिर चुका है, इतना इस हुजूम में!

कौन दावा करे? झूठा दंभ कोई क्यूं खुद पर भरे!
कभी शह, कभी मात है, वक्त की ये विसात है,
खुद ही जिन्दगी, छल चुकी है इस हुजूम में!

चेहरा एक तेरा, एक मेरा भी है चेहरों के हुजूम में!
ढ़ोए जा रहा है, यही भीड़, तुझको और मुझको,
अन्तहीन सा दौड़ है, गुम है सब इस हुजूम में!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday, 11 June 2019

दृष्टि-पथ

इस दृष्टि-पथ से, तुम हुए थे जब ओझल...

धूमिल सी हो चली थी संध्या,
थम गई थी, पागल झंझा,
शिथिल हो, झरने लगे थे रज कण,
शांत हो चले थे चंचल बादल....

इस दृष्टि-पथ से, तुम हुए थे जब ओझल...

सिमट चुकी थी रश्मि किरणें,
हत प्रभ थे, चुप थे विहग,
दिशाएं, हठात कर उठी थी किलोल,
दुष्कर प्रहर, थी बड़ी बोझिल....

इस दृष्टि-पथ से, तुम हुए थे जब ओझल...

खामोश हुई थी रजनीगन्धा,
चुप-चुप रही रातरानी,
खुशबु चुप थी, पुष्प थे गंध-विहीन,
करते गुहार, फैलाए आँचल....

इस दृष्टि-पथ से, तुम हुए थे जब ओझल...

बना रहा, इक मैं आशावान,
क्षणिक था वो प्रयाण,
किंचित फिर विहान, होना था कल,
यूँ ही तुम, लौट आओगे चल...

इस दृष्टि-पथ से, तुम हुए थे जब ओझल...

-पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 

Sunday, 12 May 2019

गलतफहमी


कभी अपनी फिक्र नहीं होती उन्हें
दूसरों की चिंता में
अपने सुनहरे जीवन की
कुर्बानी देने से भी
कभी घबराते नहीं वे.
परायों को भी अपना
बना लेने का गुर
कोई इनसे सीखे.
इनका प्रयोजन
कभी गलत नहीं था
फिर भी वे इल्जाम लगाते हैं,
कि इनके ही कारण कई
अपने प्राणों से
हाथ धो बैठे.
कई जीवन उजड़ गए.
कई घर तबाह हो गए.
और भी न जाने क्या क्या.
पर ये हमेशा निर्दोष ही साबित हुए
इनकी इसमें कोई गलती ही नहीं थी
दूसरों ने इन्हें समझने की
कभी कोशिश ही नहीं की
और स्वयं ही गलतफहमी
का शिकार हो गए.
पर इक्के दुक्के जो
गलतफहमियों
के भँवर से निकलने में
कामयाब रहे,
वे खुश रहने लगे.
इसमें गलती गलतफहमी
पालनेवाले की है न कि उनकी.
फिर भी प्रत्येक बार
वे उन्हें ही दोष देते हैं.
परिणामस्वरूप खुद ही पछताते भी हैं.
वे क्यों नहीं समझते कि
अच्छे मकसद से किए गए
जुर्म की सजा नहीं सुनाई जाती.
यही विधाता के दरबार का भी नियम है.
जबसे यह पृथ्वी प्रकट हुई है
उनका प्राकट्य भी तभी हुआ था.
तभी से उनका नाम चला आ रहा है.
वे अजर हैं और अमर भी.
और हम उन्हें
कभी कभार प्रेम से,
परंतु, ज्यादातर घृणा से
पुकारते हैं - 'लोग।'


Thursday, 14 February 2019

पुलवामा (14.02.2019)

पुलवामा की आज 14.02.2019 की, आतंकवादी घटना और नौजवानों / सैनिकों की वीरगति से मन आहत है....

प्रश्न ये, देश की स्वाभिमान पर,
प्रश्न ये, अपने गणतंत्र की शान पर,
जन-जन की, अभिमान पर,
प्रश्न है ये,अपने भारत की सम्मान पर।

ये वीरगति नहीं, दुर्गति है यह,
धैर्य के सीमा की, परिणति है यह,
इक भूल का, परिणाम यह,
नर्म-नीतियों का, शायद अंजाम यह!

इक ज्वाला, भड़की हैं मन में,
ज्यूँ तड़ित कहीं, कड़की है घन में,
सूख चुके हैं, आँखों के आँसू,
क्रोध भरा अब, भारत के जन-जन में!

ज्वाला, प्रतिशोध की भड़की,
ज्वालामुखी सी, धू-धू कर धधकी,
उबल रहा, क्रोध से तन-मन,
कुछ बूँदें आँखों से, लहू की है टपकी।

उबाल दे रहा, लहू नस-नस में,
अन्तर्मन मेरा, नहीं है आज वश में,
उन दुश्मनों के, लहू पी आऊँ,
मिले चैन, जब वो दफ़न हो मरघट में।

दामन के ये दाग, छूटेंगे कैसे,
ऐसे मूक-बधिर, रह जाएँ हम कैसे,
छेड़ेंगे अब गगणभेदी हुंकार,
प्रतिकार बिना, त्राण पाएंगे हम कैसे!

ये आह्वान है, पुकार है, देश के गौरव और सम्मान हेतु एक निर्णायक जंग छेड़ने की, ताकि देश के दुश्मनों को दोबारा भारत की तरफ आँख उठाकर देखने की हिम्मत तक न हो। जय हिन्द ।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday, 13 February 2019

काश

काश! यादों के उस तट से गुजरे न होते हम....

रंग घोलती उन फिजाओं में,
शिकवे हजार लिए अपनी अदाओं में,
हाँ, पहली बार यूँ मिले थे तुम.....

कशिश बला की उन बातों में,
भरी थी शरारत उन शरमाई सी आँखों में,
हाँ, वादे हजार कर गए थे तुम.....

नदी का वो सूना सा किनारा,
वो राह जिनपर हम संग फिरे थे आवारा,
हाँ, उन्हें तन्हा यूँ कर गए थे तुम.....

ढली सुरमई सांझ कभी रंगों में,
कभी रातें शबनमीं तुझको पुकारती रहीं,
हाँ, मुद्दतों अनसुनी कर गए थे तुम....

बातें वो अब बन चुकी हैं यादें,
रह रह पुकारती है मुझको, तेरी वो बातें,
हाँ, लहरों सी यादें देकर गए थे तुम......

काश! यादों के उस तट से गुजरे न होते हम....

Tuesday, 12 February 2019

मनुष्यता (मैथिलीशरण गुप्त)

विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸
मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी।
हुई न यों सु–मृत्यु तो वृथा मरे¸ वृथा जिये¸
नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए।
यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

उसी उदार की कथा सरस्वती बखानवी¸
उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
अखण्ड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे।।

सहानुभूति चाहिए¸ महाविभूति है वही;
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरूद्धवाद बुद्ध का दया–प्रवाह में बहा¸
विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहे?
अहा! वही उदार है परोपकार जो करे¸
वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े¸
समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े–बड़े।
परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी¸
अभी अमत्र्य–अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
रहो न यों कि एक से न काम और का सरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

"मनुष्य मात्र बन्धु है" यही बड़ा विवेक है¸
पुराणपुरूष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है¸
परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
अनर्थ है कि बंधु हो न बंधु की व्यथा हरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए¸
विपत्ति विप्र जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
घटे न हेल मेल हाँ¸ बढ़े न भिन्नता कभी¸
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में
सन्त जन आपको करो न गर्व चित्त में
अन्त को हैं यहाँ त्रिलोकनाथ साथ में
दयालु दीन बन्धु के बडे विशाल हाथ हैं
अतीव भाग्यहीन हैं अंधेर भाव जो भरे
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

- मैथिलीशरण गुप्त 

Monday, 11 February 2019

पंथ होने दो अपरिचित (महादेवी वर्मा)

पंथ होने दो अपरिचित / महादेवी वर्मा

पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला!

घेर ले छाया अमा बन
आज कंजल-अश्रुओं में रिमझिमा ले यह घिरा घन।

और होंगे नयन सूखे
तिल बुझे औ’ पलक रूखे
आर्द्र चितवन में यहां
शत विद्युतों में दीप खेला

अन्य होंगे चरण हारे
और हैं जो लौटते, दे शूल को संकल्प सारे।

दुखव्रती निर्माण उन्मद
यह अमरता नापते पद
बांध देंगे अंक-संसृति
से तिमिर में स्वर्ण बेला

दूसरी होगी कहानी
शून्य में जिसके मिटे स्वर, धूलि में खोई निशानी।

आज जिस पर प्रलय विस्मित
मैं लगाती चल रही नित
मोतियों की हाट औ’
चिनगारियों का एक मेला

हास का मधु-दूत भेजो
रोष की भ्रू-भंगिमा पतझार को चाहे सहे जो

ले मिलेगा उर अचंचल
वेदना-जल, स्वप्न-शतदल
जान लो वह मिलन एकाकी
विरह में है दुकेला!


रचयिता - महादेवी वर्मा

Saturday, 9 February 2019

खत

खत कितने ही, लिख डाले हमनें,
कितने ही खत, लिखकर खुद फाड़ डाले,
भोले-भाले, कितने हम मतवाले!

बेनाम खत, खुद में ही गुमनाम खत,
अनाम खत, वो बदनाम खत,
अंजान खत, उनके ही नाम खत,
खत, मेरी ही अरमानों वाले,
कितने ही खत, लिखकर फाड़ डाले!

अनकहे शब्दों में, ढ़लकर गाते खत,
हृदय की बातें, कह जाते खत,
भीगते खत, नैनों को भिगाते खत,
खत, मेरी ही जागी रातों वाले,
कितने ही खत, लिखकर फाड़ डाले!

करुणा में डूबे, भाव-गीत वाले खत,
प्रेम संदेशे, ले जाने वाले खत,
पीले खत, सुनहले रंगों वाले खत,
खत, मेरी हृदय के छालों वाले,
कितने ही खत, लिखकर फाड़ डाले!

खत कितने ही, लिख डाले हमनें,
कितने ही खत, लिखकर खुद फाड़ डाले,
भोले-भाले, कितने हम मतवाले!

Sunday, 3 February 2019

रहस्य

दो नैनों के सागर में, रहस्य कई इस गागर में.....

सुख में सजल, दुःख में ये विह्वल,
यूं ही कभी खिल आते हैं बन के कँवल,
शर्मीली से नैनों में कहीं दुल्हनं की,
रहस्यमयी प्रेमी अभिलाषा इन नैनों की....

तिलिस्म जीवन की कई, रहस्य की इस गागर में...

ये काजल है या है नैनों में बादल,
शायद फैलाए है मेघों ने अपने आँचल,
चंचल सी चितवन, कजरारे नैनों की,
ईशारे ये रहस्यमय, इन प्यारे से नैनों की....

है डूबे चुके कितने ही, इस रहस्यमयी सागर में.....

पल में ये गजल, पल में ये सजल,
हर इक पल में खुलती है ये रंग बदल,
कहती कितनी ही बातें अनकही,
रंग बदलती रहस्यमयी सी भाषा नैनों की....

अनबुझ बातें कई, रहस्य बनी इस सागर में...

Monday, 28 January 2019

पथिक अहो



पथिक अहो.....
मत व्याकुल हो!!!
डर से न डरो
न आकुल हो।
नव पथ का तुम संधान करो
और ध्येय पर अपने ध्यान धरो ।

नहीं सहज है उसपर चल पाना।
तुमने है जो यह मार्ग चुना।
शूल कंटकों से शोभित
यह मार्ग अति ही दुर्गम है ।
किंतु यहीं तो पिपासा और
पिपासार्त का संगम है ।

न विस्मृत हो कि बारंबार
रक्त रंजित होगा पग पग।
और छलनी होगा हिय जब तब।

बहुधा होगी पराजय अनुभूत
और बलिवेदी पर स्पृहा आहूत।

यही लक्ष्य का तुम्हारे
सोपान है प्रथम।
इहेतुक न शिथिल हो
न हो क्लांत तुम।

जागृत अवस्था में भी
जो सुषुप्त हैं।
सभी संवेदनाएँ
जिनकी लुप्त हैं।
कर्महीन होकर रहते जो
सदा सदा संतप्त हैं ।
न बनो तुम उन - सा
जो हो गए पथभ्रष्ट हैं ।

बढ़ो मार्ग पर, होकर निश्चिंत।
असमंजस में, न रहो किंचित।
थोड़ा धीर धरो, न अधीर बनो।
दुष्कर हो भले, पर लक्ष्य गहो।

पथिक अहो, मत व्याकुल हो
दुष्कर हो भले, पर लक्ष्य गहो।

सुधा सिंह 📝

Sunday, 27 January 2019

यह भी तो कहो...




ठहरो!!!
मेरे बारे में कोई धारणा न बनाओ।
यह आवश्यक तो नहीं,
कि जो तुम्हें पसंद है,
मैं भी उसे पसंद करूँ।
मेरा और तुम्हारा
परिप्रेक्ष्य समान हो,
ऐसा कहीं लिखा भी तो नहीं।

हर जड़, हर चेतन को लेकर
मेरी धारणा, अवधारणा
यदि तुमसे भिन्न है...
तो क्या तुम्हें अधिकार है
कि तुम मुझे अपनी दृष्टि
में हीन समझ लो।

जिसे तुम उत्कृष्टता
के साँचे में तौलते हो,
कदाचित् मेरे लिए वह
अनुपयोगी भी हो सकता है।

तुम्हें पूरा अधिकार है
कि तुम अपना दृष्टिकोण
मेरे सामने रखो।
परन्तु मेरे दृष्टिकोण को गलत
ठहराना क्या उचित है??
क्या मैंने अपने कर्मों
और कर्तव्यों का
भली- भाँति
निर्वाहन नहीं किया???
क्यों मेरा स्त्रीत्व
तुम्हें अपने पुरुषत्व
के आगे हीन जान पड़ता है??
आख़िर कब तक मैं
अपने अस्तित्व के लिए तुमसे लडूंँ??
और यह भी तो कहो कि
अगर मेरा अस्तित्व खत्म हो गया
तो क्या तुम
अपना अस्तित्व तलाश पाओगे???

सुधा सिंह 📝







अवधारणा

पुनर्सृजित होते हो, कल्पनाओं में तुम ही...

मूर्त रूप हो कोई, या हो महज कल्पना,
या हो तुम, मेरी ही कोई, सुसुप्त सी चेतना,
हर घड़ी, हर शब्द, तेरी ही विवेचना!

पुनर्सृजित हो जाते हो, रचनाओं में तुम ही...

यथार्थ संवेदना हो, या सिर्फ संकल्पना,
अनुभूति हो कोई, या हो महज अवधारणा,
सदियों जिसकी, की है मैंने विवेचना!

पुनर्सृजित होते हो, संवेदनाओं में तुम ही...

अमूर्त विचार, जो झकझोरती है चेतना,
कोई अन्तर्वेदना, जो तलाशती हैं संभावना,
रूप-सौन्दर्य, ना हो जिसकी विवेचना!

पुनर्सृजित होते हो, विवेचनाओं में तुम ही...
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अवधारणा: चेतना का वो मूल तत्व, जो, वस्तु को उसके अर्थ तथा अर्थ को वस्तु के बिम्ब के साथ जोड़ती है और चेतना को, संवेदनात्मक बिम्बों से अलग, इक स्वतंत्र रूप से पहचानने की संभावना पैदा करती है।

Saturday, 26 January 2019

निःस्वार्थ

निःस्वार्थ ! स्नेह कहीं मिल जाए, तो कोई बात बने!

वो कहते हैं, कुछ अपने दिल की कह लूँ,
तन्हाई बुन लूँ, धुन चुन लूँ, फिर दिन-रात ढ़ले!
साथ कोई जग में, यूँ ही कब देता है?
यूँ बिन मतलब के, बात यहाँ कब करता है?
स्वार्थ सधे, तो बातों का झरना है!
सबकी अपनी धुन, अपनी ही राह है,
मतलब की यारी, बेमतलब क्या होना है?

निःस्वार्थ! कोई दिल की सुने, तो कोई बात बने।

वो कहते है, दो-चार कदम साथ चलूँ,
चंद साँसें, साँसों मे भरूँ, तो ये जीवन ढ़ले!
क्या कदमों का चलना ही जीवन है?
दो चार कदम, संग ढ़लना ही क्या जीवन है?
जीवन क्या, बस स्वार्थ ही सधना है?
सबकी अपनी चाल, अपना ही रोना है,
ये है इक आग, जिसमें जलकर खोना है।!

निःस्वार्थ! कोई संग गुनगुनाए, तो कोई बात बने।

निःस्वार्थ! यूँ हीं प्यार मिल जाए, तो कोई बात बने!

Monday, 21 January 2019

नीड़-इक कल्पना

आँचल तले इक नीड़,
बना लेता ये खग, किसी कल्पना से भी सुन्दर!

हो कौन? अंजाना हूँ अब तक तुमसे,
लिपटा है मन, धुंध मे बस उस आँचल से,
लहराता हूूँ मैं, नभ में संग आँचल के,
छाँव वही प्यारा सा, गहराया अब इस मन पे।

प्रीत की डोर, बँँधी आँचल की कोर,
मन-विह्ववल, चित-चंचल, चितवन-चितचोर,
आँचल लहराता, जिया उठता हिलकोर,
उस ओर चला मन, आँचल उड़ता जिस ओर।

रंग-बिरंगे, सतरंगे, आँचल के कोर,
अति मन-भावन, उस आँचल के डोर-डोर,
छाँव घनेरी उन पर, जुल्फों के हर ओर,
बांध गया मन, आँचल से करता गठ-जोड़।

खग सा ये मन, नभ सा वो आँचल,
नभ पर मंडराता हो, जैसे कोई हंस युगल,
बूूँदें रिमझिम लाई, कल्पना के बाादल,
काश! मेेेेरा हो जाता, सुनहरा वो आँचल!

आँचल तले इक नीड़,
बना लेता ये खग, किसी कल्पना से भी सुन्दर!

Saturday, 19 January 2019

ओ बाबुल

ओ बाबुल! यूं भुला न देना, फिर पुकार लेना मुझे...

कोई नन्ही कली सी, मैं तो थी खिली,
तेरे ही आंगन तो मैं थी पली,
चहकती थी मै, तेरा स्नेह पाकर,
फुदकती थी मैं, तेरे ही गोद आकर,
वही ऐतबार, तु मेरा देना मुझे!

ओ बाबुल! यूं भुला न देना, फिर पुकार लेना मुझे...

स्नेहिल स्पर्श, तुने ही दिया था मुझे,
प्रथम पग तूने ही सिखाया मुझे,
अक्षर प्रथम तुझसे ही मैं थी पढी,
शीतल बयार सी मै तेरे ही आंगन बही,
स्नेह का फुहार, वही देना मुझे!

ओ बाबुल! यूं भुला न देना, फिर पुकार लेना मुझे...

बरखा बहार मैं, थी मेघा मल्हार मैं,
हर बार पाई तेरा दुलार मैं,
अब जाऊंगी कहाँ उस पार मैं,
न अलविदा तेरे मन से है होना मुझे,
विदाई का उपहार, यही देना मुझे!

ओ बाबुल! यूं भुला न देना, फिर पुकार लेना मुझे...

मैं हूं विश्रंभी, तू मेरा ऐतबार रखना,
विश्वास का मेरे है तू ही गहना,
भूलूंगी ना मैं, तुझे अन्तिम घड़ी तक,
मिलने को आऊंगी, मैं तेरी देहरी तक,
मोह का संसार, यही देना मुझे!

ओ बाबुल! यूं भुला न देना, फिर पुकार लेना मुझे...

Friday, 18 January 2019

मैं बेटी हूँ

                                                                                                            
                 दिन ब दिन माँ  बेचैन सी लगने लगी 
                     समय की धार से नाख़ून कुरेदती
                          अब आँखें मलने लगी !
                      अकेले बैठे -बठै  मुस्कुराती 
                           कुछ    गुनगुनाती 
           धड़कने  अब मैं  सुन और  समझने लगी 
                         अक़्सर वह बेचैन, 
                       फिर  भी मुझसे बातें करती 
                       शब्दों  की  गहराइयों से दूर वो 
                     सहलाने  में  मशगूल  रहने  लगी 
                    प्रेम  की अथाह   गहराइयों में  डूबी 
                 अक़्सर  माँ  मुझ  से  कुछ   छुपाती 
                  धीरे -धीरे मैं माँ को  समझने  लगी 
                       धड़कनों  को सीने से लगा वह 
                       न  जाने  अक़्सर बेचैन सी  बैठी 
             किस दर्द को सीने से लगा घबराने लगी  ?
                      अथाह प्रेम से सराबोर 
                 मुग्ध आँखों से  मुझे  पुकारती 
         कुछ अंजाने शब्द , मन विचलित करने लगे 
                   कहती कुछ न बेचैन  सी  रहती 
               अपनी कहानी अंजाने में मुझे सुनाती 
              सीने से लगी  मैं अब महसूस करने लगी 
              समय के साथ माँ   मुझसे  नाराज़ सी रहती  
              बेचैन धड़क  अब मैं भी   महसूस करने लगी 
                   समय के साथ अब हलचल मुझ में 
                    धड़कनें अब माँ मेरी सुनने लगी 
                 बड़ी हो रही हूँ   ,वर्ष के तीसरे महीने 
                का  एहसास  माँ को  करने  लगी .....
     
                          - अनीता 

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